Gyan – PrabhuPuja https://prabhupuja.com Sanatan Dharma Gyan Sun, 28 Jul 2024 03:42:22 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.1 https://i0.wp.com/prabhupuja.com/wp-content/uploads/2024/07/cropped-prabhupuja_site_icon-removebg-preview-1.png?fit=32%2C32&ssl=1 Gyan – PrabhuPuja https://prabhupuja.com 32 32 214786494 Vedon ki Rachna Kisne ki hai | वेदों की रचना किसने की https://prabhupuja.com/vedon-ki-rachna-kisne-ki-hai/ https://prabhupuja.com/vedon-ki-rachna-kisne-ki-hai/#respond Tue, 05 Mar 2024 08:52:39 +0000 https://prabhupuja.com/?p=2791 Vedon ki rachna kisne ki hai? Who wrote vedas? वेदों के बारे में सम्पूर्ण जानकारी हम यहाँ आपसे साझा कर रहे है जैसे वेदों की रचना कब हुई ?, वेदों की रचना किसने की ?, वेद कितने प्रकार के होते है ?, वेद किसलिये लिखे गए थे?, वेदों के अंदर क्या ज्ञान छुपा है ?, वेदों से हम क्या-क्या ज्ञान प्राप्त करते है ? इसके अलावा और भी बहुत कुछ हम यहाँ आपको बताने की कोशिश करेगे। वेद हिन्दू सनातन धर्म का आधार है। अर्थशास्त्र, संगीतशास्त्र, जीवनशास्त्र, मोक्षशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, खगोलशास्त्र और हर एक सामजिक पहलु वेदों में निहित है। संसार का सार वेदों में लिखा है। हजारो साल से वेद मनुष्य को ज्ञान पुंज की भाति राह दिखा रहे है ।

What are Vedas? वेद क्या है? वेद क्या होते है ?

वेद शब्द बना है “विद्” से जिसका अर्थ है जानना (किसी बात या व्‍यक्ति की जानकारी होना) इससे ही बना है विद्वान, विदुषी, विद्या । वेद का अर्थ है “ज्ञान” ।

अनन्ता वै वेदाः अर्थात “वेद अनंत है” “जिसका कोई अंत नहीं वही वेद है”

वेदों को श्रुति भी कहा जाता है। Vedas also called Nigama, Shruti, Amnaya

वेद कोई कल्पना की बातो को प्रस्तुत नहीं करते है। वेद पूरी तरह से प्रैक्टिकल बातो का लिपिबद्ध रूप है।

When Vedas was Written? वेदों की रचना कब हुई ?

वेदों कि रचना कब हुई ? इस प्रश्न पर आधुनिक समय में सबसे पहले मैक्स मूलर ने शोध कार्य किया और बुद्ध की ज्ञात तिथि 600 ई पूर्व को अपनी काल गणना का प्रारंभ बिंदु बनाया।

एक बात तो ज्ञात रूप से प्रामाणिक है कि बुद्ध से पहले प्रमुख उपनिषद रचे जा चुके थे। मैक्स मूलर ने वैदिक साहित्य के प्रत्येक चरण के लिए 200 वर्षों का समय निर्धारित किया। इस गणना अनुसार 600 ईसा पूर्व से पीछे की ओर चलते हुए
उपनिषद 800 से 600 ईसा पूर्व
ब्राह्मण और आरण्यक 1000 से 800 ईसा पूर्व तथा
ऋग्वेद की ऋचाएं अथवा मंत्र 1200 से 1000 ईसा पूर्व रचे गए होंगे।

यह प्रश्न उल्लेखनीय है कि स्वयं मैक्स मूलर इस तिथि निर्धारण को सर्वथा निश्चित नहीं मानते थे और उन्होंने यह स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया कि ऋग्वेद कि रचना का समय 1000 से 1500 ईसा पूर्व या 2000 ईसा पूर्व अथवा 3000 ईसा पूर्व भी हो सकता है।

Who Wrote Vedas? वेदों की रचना किसने की ?

वेद परब्रम्ह के द्वारा ऋषियों को सुनाया गया ज्ञान है इसलिये वेदों को श्रुति कहा जाता है । ऐसा कहा जाता है कि सर्वप्रथम भगवान शिव ने वेदों को ब्रह्मा जी को सुनाया था फिर ब्रह्मा जी ने चार ऋषियों को इन वेदों का ज्ञान दिया था । ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ये वो चार ऋषि थे ।

शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ के अनुसार अग्नि, वायु और आदित्य(सूर्य) ने तपस्या की और ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद को प्राप्त किया । वही अंगिरा ऋषि ने अथर्ववेद को प्राप्त किया था।

वेद व्यास जी ने वेदों को पुनर्गठित और सूचीबद्ध किया था । वेदों का ज्ञान तो अनंत काल से गुरु शिष्य परम्परा से पीढ़ी देर पीढ़ी आगे बढ़ता रहा ।

Vedas Types वेद कितने प्रकार के होते है ?

वेद चार प्रकार के होते है

  • ऋग्वेद
  • यजुर्वेद
  • सामवेद
  • अथर्ववेद

हर वेद के भी चार भाग होते है

  • आरण्यक(Aranyaka)
  • ब्राह्मण(Brahmana)
  • सहिंता(Samhita)
  • उपनिषद(Upanishad)

Why Vedas Was Written? Significance of Vedas वेद किसलिये लिखे गए थे? वेद क्यों लिखे गए थे ?

  • मानव जाति को व्यवस्थित जीवनचर्या देने के लिये वेदों का निर्माण हुआ।
  • हिन्दू सनातन संस्कृति के सभी नियमों, कर्म-काण्ड, दिनचर्या और दैनिक जीवन में काम आने वाले सूत्रों को लिपिबद्ध किया गया, तो वो वेद कहलाए।

वेदों के अंदर क्या ज्ञान छुपा है ?, वेदों से हम क्या-क्या ज्ञान प्राप्त करते है ?

ऋग्वेद

  • सबसे पहला वेद ऋग्वेद था । यह वेद पद्यात्मक रूप में लिखा हुआ है । इसके 10 मंडल(अध्याय) में 1028 सूक्त है। जिसमे 10552 मन्त्र है।
  • ऋग्वेद मुख्य रूप से हमे विज्ञान के बारे में बताता है इसलिये इसे विज्ञान काण्ड भी कहा जाता है।
  • ऋग्वेद में एक ही संहिता ऋग्वेद संहिता पाई जाती है ।
  • ऋग्वेद में दो ब्राह्मण ऐतरेय और कौषीतकि होते है ।
  • ऋग्वेद में दो आरण्यक पाये जाते है ऐतरेय और शांखायन ।
  • ऋग्वेद में कुल 10 उपनिषद पाये जाते है ।
  • ऋग्वेद में इंद्र देव, अग्नि देव, सूर्य देव, वरुण देव और वायु देव की आराधना के मन्त्र और विधि है ।

यजुर्वेद

  • यजुर्वेद में 40 अध्याय और 1975 श्लोक(मन्त्र ) है । जिन्हे यजुस भी कहा जाता है ।
  • यजुर्वेद के दो भाग है शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद
  • यजुर्वेद यज्ञ और अनुष्ठानो का विवरण देता है।
  • यजुर्वेद में एक ही संहिता है जिसको यजुर्वेद संहिता कहा जाता है ।
  • यजुर्वेद में तीन ब्राह्मणसय होते है जिन्हे कथक ब्राह्मण, तैत्तिरीय ब्राह्मण और शतपथ ब्राह्मण कहते है।
  • यजुर्वेद में तीन आरण्यक पाये जाते है ब्रिहद, तैत्तिरीय और मैत्रायणीअ आरण्यक।
  • यजुर्वेद में कुल 51 उपनिषद पाये जाते है।

सामवेद

  • साम का अर्थ है रूपांतरण और संगीत, सौम्यता और उपासना। सामवेद में ऋग्वेद की ऋचाओं का संगीतमय रूप है। आकार की दृष्टि से सामवेद सबसे छोटा है परन्तु इसमे वेदो का संगीतमय सार है जो इसको सबसे लोकप्रिय और महत्वपूर्ण वेद बनाता है ।
  • सामवेद में एक ही संहिता है जिसको सामवेद संहिता कहा जाता है । इसमे 1875 मन्त्र है अधिकतर मन्त्र ऋग्वेद से लिये गए है ।
  • सामवेद में कुल 11 ब्राह्मणसय पाये जाते है ।
  • सामवेद में दो आरण्यक पाये जाते है, तलवकारा और छान्दोग्य ।
  • सामवेद में कुल 16 उपनिषद पाये जाते है । छान्दोग्य और केना उपनिषद सबसे प्रमुख उपनिषद है ।
  • सामवेद में विशेष पुजारी का वर्णन है। जिनको उद्गात्र के नाम से जाना जाता है। उद्गात्र पुजारी विशेष गायक होते थे जो मंत्रो को गाकर देवताओ का आव्हान करते थे ।

अथर्ववेद

  • अथर्ववेद में कुल 20 काण्ड, 730 सूक्त, 5987 मन्त्र है।
  • इस वेद में ब्रह्म ज्ञान, औषधि प्रयोग, रोग निवारण जंतर-तंत्र, टोना-टोटका आदि की जानकारी है। पृथ्वी सूक्त इसका सबसे महत्वपूर्ण सूक्त है ।
  • अथर्ववेद में आयुर्वेद, औषधियों और चिकित्सा आदि का वर्णन होने के कारण इसे भेषज्य वेद भी कहा जाता है।
  • अथर्ववेद को ब्रह्मवेद के साथ-साथ ज्ञान काण्ड भी कहा जाता है।
  • अथर्ववेद में एक ही संहिता है जिसको अथर्ववेद संहिता कहा जाता है।
  • अथर्ववेद में 736 गान के साथ 6077 मन्त्र है।
  • अथर्ववेद में एक ही ब्राह्मणसय है जिसे गोपथ ब्राह्मण कहते है।
  • अथर्ववेद में कुल 31 उपनिषद पाये जाते है।

Disclaimer (खंडन)

‘इस लेख में निहित किसी भी जानकारी/सामग्री/गणना की सटीकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। विभिन्न माध्यमों/ज्योतिषियों/पंचांग/प्रवचनों/मान्यताओं/धर्मग्रंथों से संग्रहित कर ये जानकारियां आप तक पहुंचाई गई हैं। हमारा उद्देश्य महज सूचना पहुंचाना है, इसके उपयोगकर्ता इसे महज सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त, इसके किसी भी उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं उपयोगकर्ता की ही रहेगी’।

FAQ

वेद कितने हैं?

वेद चार होते है
ऋग्वेद
यजुर्वेद
सामवेद
अथर्ववेद

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Kartik Maas Snan कार्तिक मास स्नान सम्पूर्ण विधि https://prabhupuja.com/kartik-maas-snan/ https://prabhupuja.com/kartik-maas-snan/#respond Tue, 24 Oct 2023 02:44:23 +0000 https://prabhupuja.com/?p=1113 Kartik Maas Snan, Ganga Snan कार्तिक मास स्नान सम्पूर्ण विधि, गंगा स्नान, कार्तिक मास या कार्तिक महीना हिन्दू सनातन धर्म में सबसे पवित्र महीना माना जाता है। पूरे कार्तिक मास में सभी धर्म प्रेमी स्त्री और पुरुष व्रत रखते है, और कार्तिक स्नान का भी बड़ा महत्त्व है। कार्तिक मास लगते ही पूर्णिमा से कार्तिक समाप्ति की पूर्णिमा तक व्रत किये जाते है। इन व्रतों को करने वाली महिलाओ और पुरषों को सुबह पांच बजे उठकर तारों की छाँव में ठंडे पानी से स्नान करना चाहिए।

इस माह में सरोवर के स्नान का बड़ा महत्व है। अगर गंगा, यमुना जैसी पवित्र नदियां हो तो इन्ही में स्नान करे(इंसान के फैलाये प्रदुषण ने यह सुख अब इंसान से दूर कर दिया है)। स्नान के पश्यात घर या मंदिर आकर भगवान राधा-कृष्ण, पीपल, तुलसी, आंवले, केले आदि की पूजा करे व पांच छोटे पत्थर रखकर पथवारी बनाकर पूजा करे। भगवान का कीर्तन करे और रोज शामको दीपक जलावे। रोजाना कार्तिक महात्म सुने या कहानी कहे। व्रत की समाप्ति के दिन उजमना करे।

नारायण तारायण व्रत विधि

पहले दिन तारो को अर्घ देकर भोजन करे। दूसरे दिन दोपहर में भोजन करे। तीसरे दिन निराहार व्रत रखे। इस प्रकार कार्तिक मास पूरा किया जाता है।

तारा भोजन व्रत विधि

पूरे कार्तिक मास में प्रतिदिन सांय काल में तारा देखकर भोजन करे। माह के अंत में ब्राह्मण को भोजन कराकर चाँदी का तारा व तैतीस पेड़े दान में दे।

छोटी सांकली व्रत विधि

इस व्रत में दो दिन भोजन और एक दिन उपवास रखते है। इसी क्रम से पूरे माह व्रत किये जाते है। बाद में यथाशक्ति अनुसार सोने या चाँदी की सांकली भगवान के मंदिर में चढ़ावे। ब्राह्मण को भोजन करा कर दक्षिणा देवे।

बड़ी सांकली व्रत विधि

इस व्रत में दो दिन उपवास और एक दिन एक समय भोजन किया जाता है। बाद में यथाशक्ति अनुसार सोने या चाँदी की सांकली भगवान के मंदिर में चढ़ावे। ब्राह्मण को भोजन करा कर दक्षिणा देवे। माह में आने वाली एकादशी व प्रत्येक रविवार को भी उपवास किया जाता है।

एकातर व्रत विधि

एक दिन भोजन और एक दिन उपवास इस प्रकार पूरे महीने भर तक करे। अंत में ब्राह्मण को भोजन कराके दक्षिणा देवे।

चंद्रायन व्रत विधि

इस व्रत में पूर्णमासी से उतरते कार्तिक की पूर्णमासी तक चंद्रायन व्रत किया जाता है। पूर्णमासी को उपवास करने के बाद एकम के दिन से हलवे का केवल एक ग्रास तथा दूजे को दो ग्रास, तीज को तीन ग्रास इस प्रकार प्रतिदिन एक-एक ग्रास बढ़ाकर अमावस्या तक पंद्रह ग्रास खाना चाहिए। अमावस्या के दूसरे दिन से एक ग्रास कम करते हुए पूर्णिमा तक वापस एक ग्रास रहना चाहिए। चन्द्रमा, रोहिणी की मूर्ति बनाकर हवन करावे। गादी, तकिया, रजाई, पांच बर्तन, धोती, कुर्ता, साड़ी, ब्लाउज आदि सुहाग की समस्त सामग्री रखकर ब्राह्मण को जोड़े से भोजन कराकर दान देवे।

तुलसी तीरायत व्रत विधि

आँवला नवमी से ग्यारस तक तीन दिन तक निराहार उपवास किया जाता है। तीन दिन तक भगवान के समक्ष अखंड ज्योति जलावे और ग्यारस के दिन राधा दामोदर के साथ तुलसी जी की शादी करना चाहिए। बारस के दिन ब्राह्मणो को जोड़े से भोजन करावे।इसमे से तीन जोड़ो को भोजन कराकर यथा शक्ति दक्षिणा देवे। उसके पश्यात स्वयं भोजन करे।

प्रदोष व्रत विधि

पूरे महीने भर तक शाम के समय पांच बजे तक एक बार भोजन करे। बाद में पूर्णिमा पर ब्राह्मण को भोजन कराए और चाँदी का तारा बनवाकर दान करे।

अलूणा पावभर खाना व्रत विधि

महीना भर या पांच दिन या तीन दिन तक पावभर हलुआ या लड्ड़ू जो भी इच्छा हो वो खाना चाहिए। बाद में लड्ड़ू में यथा शक्ति गुप्त दान रखकर ब्राह्मण को या मंदिर में देना चाहिए।

पंचतीर्थया व्रत विधि

ग्यारस, बारस निगोट, तेरस अलूणा,चौदस व पूनम निगोट, फिर पूनम के दिन हवन करना। पांच तार की बत्ती, एक अपनी, एक बढ़ोतर की भगवान के जलानी है। दिये की पूजा करनी है। उद्यापन में पड़वा के दिन पांच ब्राह्मणो को भोजन कराये, ब्राह्मण जोड़ी को पोशाक दान देवे, चार सौभाग्य वायन देना, सुहाग सामग्री देना।

छोटी पंचतीर्थया व्रत विधि

इसमे पांच दिन ग्यारस से पूनम तक का स्नान करना होता है। किसी से एक महीने भर तक कार्तिक नहीं नहाने की बने तो पांच दिन जल्दी उठकर तारों की छाया में स्नान करने से एक महीने का पुण्य लग जाता है।

विशेष जो भी कार्तिक स्नान करता है। वे लिखे अनुसार एवं अन्य मुख्य उपवास रविवार, व्यतीपात पूर्णिमा, ग्यारस अवश्य करे।

कार्तिक स्नान की कहानी (1), कार्तिक स्नान कथा (Kartik Snan Katha)

एक गांव में एक बुढ़िया रहा करती थी। जो चार माह (चातुर्मास ) में पुष्कर स्नान किया करती थी। उसका एक बेटा और बहु थी। जब चातुर्मास का समय आया तो माँ को पहुंचाने के लिए बेटा पुष्कर गया। सास ने बहु को रास्ते के लिये फलाहार बनाने को कहा तो बहु ने जमीन के पापडे(पपड़ी) उखाड़ कर बाँध दिए। रास्ते में बेटा माँ से बोला-माँ फलाहार कर ले। जहाँ पानी मिला बूढी माँ वही फलाहार करने बैठ गईं, जैसे ही उसने पोटली खोली पापडे फलाहार बन गए, बूढ़ी माँ ने फलाहार कर लिआ। पुष्कर में बेटा माँ के लिए झोपड़ी बनाकर सामान रखकर वापस अपने गांव आ गया।

रात्रि के प्रहर में श्रावण मास आया और बोला -बुढ़िया दरवाजा खोल, तब बुढ़िया ने पूछा तू कौन है? मैं श्रावण हूँ, बुढ़िया ने तुरंत झोपड़ी का दरवाजा खोल दिया। बुढ़िया ने श्रावण मास में महादेव जी का पूजन किया और बीलपत्र चढाती, अभिषेक करती, भजन-कीर्तन करती। जाते समय श्रावण ने बुढ़िया की झोपड़ी को एक लात मारी, तो झोपड़ी की एक दिवार सोने की हो गई।

बाद में भाद्रपद मास आया और उसने भी दरवाजा खोलने को कहा, बुढ़िया ने दरवाजा खोला साथ ही सत्तू बनाया, कजरी तीज मनाई। भादवा भी जाते समय झोपड़ी को एक लात मार गया तो दूसरी दीवार हीरे की हो गई। फिर आसोज मास आया और उसने भी बुढ़िया को दरवाजा खोलने को कहा, बुढ़िया ने दरवाजा खोला और तर्पण कर श्राद्ध मनाया। ब्राह्मण भोजन कराया। गणेश जी की स्थापना की अनंत चतुर्दशी मनाई फिर नवरात्रा में माँ दुर्गा की स्थापना की, दशहरा मनाया। जाते जाते आसोज भी झोपड़ी पर एक लात मार गया तो तीसरी दीवार भी सोने की हो गई।

इन सबके बाद कार्तिक मास आया और उसने भी दरवाजा खोलने को कहा। बुढ़िया ने दरवाजा खोला और श्रद्धा से कार्तिक स्न्नान, भजन, पूजन, व्रत किया। दीपावली, गोवर्धन पूजा, भाई दूज, आँवला नवमी करी। कार्तिक मास ने जाते समय लात मारी तो इस बार पूरी झोपड़ी ही सोने की हो गई। बुढ़िया खूब दान, धर्म करती और भगवान का भजन किया करती।

चातुर्मास पूर्ण होने पर बेटा अपनी माँ को लेने पुष्कर आया तो अपनी माँ और झोपड़ी को पहचान ही नहीं पाया। वहाँ तो भगवान की कृपा से ठाठ-बाठ हो गया था। उसने आस पास वालो से पूछा। तो उन्होने सब कह सुनाया यह सुन बेटा माँ के पैरों में गिरकर बोला- माँ घर चलो और वह सारा सामान गाड़ी में भरकर माँ को घर ले आया।

सास के ठाठ देखकर बहू के मन में जलन पैदा हो गई और उसने भी अपनी माँ को चार मास के पुष्कर स्नान के लिये छोड़कर आने को पति से कहा। वह अपनी सास को भी पुष्कर छोड़कर आ गया। श्रावण, भादवा, आसोज और कार्तिक सभी आये लेकिन बहू की माँ ने कुछ भी नहीं किया। वह चार समय खाती थी और दिन भर सोती थी। चातुर्मास ने जाते-जाते झोपड़ी को एक लात मारी तो पूरी झोपड़ी गिर पड़ी और बहू की माँ को गधी की योनि में होना पड़ा।

चार माह बाद जमाई जब अपनी सास को लेने आया तो उसे न तो सास ही दिखाई दी और ना ही झोपड़ी, तब उसने आस -पास वालो से पूछा तो उन्होने बताया कि तुम्हारी सास धर्म कर्म कुछ भी नहीं करती थी। वह केवल खाती थी और सोती थी, जिससे वो गधी हो गई।

सास ने जब अपने जमाई को देखा तो वह ढेंचू-ढेंचू करती सामने आ गई। तब जमाई ने सास को गाड़ी के पीछे बाँध लिए और घर ले आया। उसकी पत्नी ने जब पूछा कि मेरी माँ कहा है? तो वो बोला कि गाड़ी के पीछे बंधी है। जिसकी जैसी करनी। मेरी माँ भोली थी, तूने फलाहार कि जगह जमीन के पापडे दिये तो वे भी फलाहार बन गए। तब उसकी औरत बोली- ब्राह्मण के पास चलकर पूछे कि मेरी माँ मनुष्य योनि में वापस कैसे आयेगी।

ब्राह्मण बोला- तेरी सास जब स्नान करे उस पानी को लेकर अपनी माँ को उस पानी से स्न्नान करा देना, तो उसकी यह योनि छूट जायेगी। तब बहू ने ऐसा ही किया और उसकी माँ मनुष्य योनि में हो गई। हे राधा दामोदर भगवान जैसा तुमने लड़के कि माँ को सब कुछ दिया, वैसे ही सब को देना।

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Pitru Paksha Shradh Rituals in Hindi पितृ पक्ष में श्राद्ध कर्म कैसे किया जाता है ? https://prabhupuja.com/pitru-paksha-shradh-rituals-in-hindi/ https://prabhupuja.com/pitru-paksha-shradh-rituals-in-hindi/#respond Tue, 03 Oct 2023 15:27:36 +0000 https://prabhupuja.com/?p=900 आइए इस लेख में जानें पितृ पक्ष में श्राद्ध कर्म कैसे किया जाता है? Pitru Paksha Shradh Rituals in Hindi बुजुर्गो की मृत्यु तिथि के दिन श्रद्धापूर्वक तर्पण और ब्राह्मण को भोजन कराना ही श्राद्ध है। श्राद्धकर्ता श्राद्ध के उपयुक्त ब्राह्मणो को पहले दिन निमंत्रित करे। वार्षिक तिथि को एकोदिष्ट और महालय पक्ष में पार्वणादि श्राद्ध करे। यदि इस प्रकार नहीं कर सके तो पितृतृप्ति के लिये सांकल्पिक श्राद्ध तथा तर्पण अवश्य करे।

श्राद्ध कार्य में ध्यान रखने वाले नियम

श्राद्ध के समय लोहे के पात्र में पाकवानादि न रखे तथा लोहे का पात्र किसी काम में न ले।

न जातीकुसुमैविद्वान बिल्वपत्रैशच नार्चयेत।
सुरभीनागकर्णाधैहृयारिकाँचनारकै।।
बिंल्वपत्रैनार्चयेतान् पितृन् श्राद्धविग्राहतैः।
तद्भु‍ञ्जंत्यसुराः श्राद्धं निराशैः पितृभिगृतम्।।
सर्वाणि रक्तपुष्पाणि निषिद्धान्यपराणि तु।
वर्जयेत् पितृश्राद्धेषु केतकी कुसुमानि च।।

श्राद्ध में बिल्वपत्र, मालती, चंपा, नागकेशर, कर्ण, जवा, कनेर, कचनार, केतकी और समस्त रक्तपुष्प वर्जित है। इन पुष्पों से पूजन करने से पितरों को श्राद्ध का फल नहीं मिलता है उसे राक्षस ग्रहण करते है।

खञ्जो वा यदि काणो दातुः प्रेष्योऽपि वा भवेत्।
हीनातिरित्तगात्रो वा तमप्यपनयेत पुनः।। मनुस्म्रति।।

लंगड़ा, काना, दाता का दास, अंगहीन और अधिक अंग वाला ब्राह्मण श्राद्ध में निषिद्ध है।

अश्रुं गमयति प्रेतान् कोपोऽरीननृतं शुनः।
पादस्पर्शस्तु रक्षाँसि दुष्कृतीनवधूननम्।। मनु़।।

श्राद्ध के समय आंसू आने से पाक प्रेतों को, क्रोध से शत्रुओ को, झूठ बोलने से कुत्तो को, पैर स्पर्श हो जाये तो राक्षसों को और पाक उछालने से पापियों को मिलता है।

यत्फ़लं कपिलादाने कार्तिक्याँ ज्येष्ठ पुष्करे।
तत्फ़लं पाण्डव श्रेष्ठ विप्राणाँ पादशाैचने।।

हे पांडव श्रेष्ठ! कार्तिक पूर्णिमा को पुष्कर तीर्थ में कपिला गौ के दान से जो फल होता है वही फल ब्राह्मणो के पैर धोने से होता है।

कभी भी ब्राह्मण को श्राद्ध के भोजन की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए, हो सके तो मौन रहकर पूरा भोजन ग्रहण करना ही उत्तम होता है।

श्राद्ध भोजन के अंत में ब्राह्मण को तिलक लगा कर दक्षिणा देने पर केवल एक पितृ जिनका श्राद्ध है वही तृप्त होते है परन्तु तिलक के बिना अगर दक्षिणा दी जाती है तो उस तिथि पर जितने भी ज्ञात और अज्ञात पितृ होते है उन सभी की तृप्ति होती है, सो ध्यान रखे दक्षिणा बिना तिलक ही देनी चाहिए।

पितृ पक्ष में श्राद्ध कर्म की विधि

तर्पण की सामग्री : पान, सुपारी, काला तिल, जौ, गेहूं, चंदन, जनेऊ, तुलसी, पुष्प, दूब, कच्चा दूध, पानी आदि सामग्री पूजा हेतु एकत्रित कर लेनी चाहिये। पूजा का स्थान गाय के गोबर से साफ कर लेना चाहिये। अब एक कंडे से बैसंदर जलाकर मृत पितृ के निमित्त और उनकी तिथि स्मरण करके नैवेघ निकाल देना चाहिये। एक थाली में गोग्रास(पंच ग्रास) तथा एक थाली में ब्राह्मण भोजन निकाले।

श्राद्ध संकल्प:- आज तिथि…….. वार……… मास………..(कृष्ण पक्ष/ शुक्ल पक्ष) पक्षे सयुंक्त सवत्सरे(पितृ/मातृ या दादा/ दादी) की पुण्य श्राद्ध तिथि पर उनके ब्रह्मलोक में स्वर्ग का आनंद एवं सुख की प्राप्ति हेतु धर्मराज की प्रसनन्ता के लिये काक बलि, मार्ग देवता की प्रसनन्ता के लिये खान (श्वान या कुत्ता) बलि, वैतरणी नदी को पार करवाने हेतु गोग्रास बलि, कीट पतग योनि की तृप्ति व अथिति देवता हेतु पंच ग्रास बलि………….(अमुक) के निमित्त है। उनकी (माता पिता दादा दादी) भूख-प्यास का दोष शांत हो तथा उन्हे आनंद की प्राप्ति होवे। हमारे वंश व धन की वृद्धि होवे।

ऐसा बोलते हुए हाथ में जल, जौ, तिल व दक्षिणा रखकर, पाँचो ग्रास पर घुमाकर दक्षिण में मुँह करके छोड़ दें। इसके अतरिक्त ब्राह्मण भोजन के निमित्त जो थाली में प्रसाद रखा है उस पर जल घुमाकर छोड़े और कहे इससे हमारे……….(माता, पिता, दादी, दादा) की तृप्ति हो वो प्रसन्न होवे।

खंडन

‘इस लेख में निहित किसी भी जानकारी/सामग्री/गणना की सटीकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। विभिन्न माध्यमों/ज्योतिषियों/पंचांग/प्रवचनों/मान्यताओं/धर्मग्रंथों से संग्रहित कर ये जानकारियां आप तक पहुंचाई गई हैं। हमारा उद्देश्य महज सूचना पहुंचाना है, इसके उपयोगकर्ता इसे महज सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त, इसके किसी भी उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं उपयोगकर्ता की ही रहेगी। हमारा उद्देश्य किसी की भावना को ठेस पहुँचाना नहीं है

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Mahamrityunjay Mantra महामृत्युंजय मंत्र https://prabhupuja.com/mahamrityunjay-mantra/ https://prabhupuja.com/mahamrityunjay-mantra/#respond Tue, 07 Feb 2023 16:50:38 +0000 https://prabhupuja.com/?p=213 Mahamrityunjay Mantra महामृत्युंजय मंत्र (मृत संजीवनी मंत्र), Shiva Mahamrityunjaya Mantra Full in Sanskrit

ॐ हौं जूं सः

ॐ भूर्भुवः स्वः

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टि वर्धनम् |

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ||

ॐ स्वः भुवः भूः

ॐ सः जूं हौं ॐ

Shiva Mahamrityunjaya Mantra Meaning in Hindi हिंदी में महामृत्युंजय मंत्र का शब्दार्थ

हम भगवान शंकर की पूजा करते है, जिनके तीन नेत्र है, जो प्रत्येक श्वास में जीवन शक्ति का संचार करते है, जो सम्पूर्ण जगत का पालन पोषण अपनी शक्ति से कर रहे है। उनसे हमारी प्राथना है की वे हमे मृत्यु के बंधनो से मुक्त कर दे, जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो जाये, जिस प्रकार एक ककड़ी बेल में पक जाने के बाद उस बेल रूपी संसार के बंधन से मुक्त हो जाती है ठीक उसी प्रकार हम भी इस संसार रूपी बेल में पक कर जन्म मृत्यु के बंधनो से सदैव के लिये मुक्त हो जाये और आपके चरणों की अमृत धारा का पान करते हुए शरीर को त्यागकर आप में लींन हो जाये।

महामृत्युंजय मंत्र का लाभ

  • यह मन्त्र जीवन की रक्षा करने वाला है। (अकाल मृत्यु, दुर्घटना इत्यादि से रक्षा करता है)
  • यह मन्त्र सर्प एवं बिच्छु के काटने पर भी अपना पूरा प्रभाव रखता है। (डॉक्टर का उपचार सबसे पहले लेना चाहिये)
  • इस मन्त्र का महत्वपूर्ण लाभ है कठिन एवं असाध्य रोगो पर विजय प्राप्त करना।
  • यह मन्त्र हर बीमारी को दूर भागने का बड़ा शस्त्र है।

महामृत्युंजय मंत्र की उत्पति Origin of Mahamrityunjay Mantra

घोर तपस्या पूरी करने के बाद शुक्र ऋषि को “मृत संजीवनी विद्या” प्राप्त हुई थी इसी विद्या का एक अंग “महामृत्युंजय मंत्र” भी है।
मृकण्ड ऋषि के भाग्य में पुत्र सुख नहीं था और था भी तो अल्प आयु, भगवान शिव के वो परम भक्त थे बड़ी तपस्या से ऋषि मृकण्ड को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई नाम रखा गया “मार्कण्डेय”, परन्तु मार्कण्डेय की आयु केवल बारह वर्ष की ही थी ।

मार्कण्डेय के जीवन की अल्प अवधि से उनकी माता अत्यंत चिंतित रहा करती थी तब मृकण्ड ऋषि ने अपनी पत्नी को आश्वत किया-देवी, चिंता मत करो। विधाता जीव के कर्मानुसार ही आयु दे सकते हैं, कितु मेरे स्वामी भगवान शिव समर्थ हैं। भाग्यलिपि को स्वेच्छानुसार परिवर्तित कर देना भगवान शिव के लिए विनोद मात्र है।

मार्कण्डेय तेजी से बारह वर्ष की उम्र की ओर बढ़ने लगे। उनकी माता उनकी बाल लीलाओ को देखकर प्रसन्न होती, परन्तु जैसे ही मार्कण्डेय की अल्पायु पर ध्यान जाता उनको अत्यधिक दुख ओर शोक होता, यह देखकर कुमारावस्था के प्रारम्भ में ही पिता ने उन्हें शिव मन्त्र की दीक्षा तथा शिवार्चना की शिक्षा दी। पुत्र को उसका भविष्य बता कर समझा दिया कि त्रिपुरारी ही उसे मृत्यु से बचा सकते हैं। माता-पिता तो दिन गिन रहे थे।

मार्कण्डेय प्रघाड़ शिव भक्त थे। बारह वर्ष पूरे होने का समय पास आ रहा था। मार्कण्डेय महादेव मन्दिर (वाराणसी जिला में गंगा गोमती संगम पर स्थित ग्राम कैथी में यह मन्दिर मार्कण्डेय महादेव के नाम से स्थापित है।) में बैठे थे। इस मन्त्र की रचना मार्कण्डेय ऋषि ने की और उन्होंने मृत्युंजय मन्त्र का अनवरत पाठ करना शुरू किया, कहते है काल किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता, समय पर वो आता ही है उसको कोई रोक नहीं सकता। यमराज के दूत समय पर आए, महामृत्युंजय मन्त्र अनवरत चल रहा था।

शिव की उपासना में लींन मार्कण्डेय को देख यमराज के दूत उनका बाल भी बाक़ा नहीं कर सके, तो उल्टे पाँव लौट गए। उन्होंने अपने स्वामी यमराज से जाकर निवेदन किया- हम मार्कण्डेय तक पहुँचने का साहस नहीं पाए। इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड के पुत्र को मैं स्वयं लाऊँगा। दण्डधर यमराज जी महिषारूढ़ हुए और क्षण भर में मार्कण्डेय के पास पहुँच गये।बालक मार्कण्डेय ने उन कज्जल कृष्ण, रक्तनेत्र पाशधारी को देखा तो कालो के काल महाकाल की लिंगमूर्ति से लिपट गया।

यमराज जी ने पाश उठाने का जैसे ही प्रयास किया, एक अद्भुत अपूर्व हुँकार हुई और मन्दिर, सभी दिशाएँ जैसे प्रचण्ड प्रकाश से चकाचौंथ हो गईं। शिवलिंग से तेजोमय त्रिनेत्र गंगाधर चन्द्रशेखर प्रकट हो गए और उन्होंने त्रिशूल उठाकर यमराज से कहा, हे! यमराज तुमने मेरे आश्रित पर पाश उठाने का साहस कैसे किया ? यमराज ने उससे पूर्व ही हाथ जोड़कर मस्तक झुका लिया था और कहा कि हे! त्रिनेत्र मैं आपका सेवक हूँ। कर्मानुसार जीव को इस लोक से ले जाने का निष्ठुर कार्य प्रभु ने इस सेवक को दिया है।

भगवान चन्द्रशेखर ने कहा कि यह संयमनी नहीं जाएगा। इसे मैंने अमरत्व दिया है। मृत्युंजय प्रभु की आज्ञा को यमराज अस्वीकार कैसे कर सकते थे? यमराज खाली हाथ लौट गए। मार्कण्डेय को भोलेनाथ ने जीवन दान दिया, मृकण्ड ऋषि ने सपरिवार भोलेनाथ को नमन किया और उनकी स्तुति की। त्रिपुरारी की स्तुति जो कोई महामृत्युंजय मंत्र से करता है वो मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है।

बोलो हर हर महादेव !, हर हर महादेव !

महामृत्युंजय मंत्र जप विधि Chanting Method of Mahamrityunjay Mantra

अथारिष्टशान्त्यर्थं महामृत्युंजय जपविधिः

आचम्य प्राणानायम्य शांतिपाठं पठित्वा सुमुखश्चेत्यादिनां गणेशस्मरणं च कृत्वा|

संकल्पः- अमुकमास्यां, अमुकपक्षयां, अमुकतिथौ अमुकवासरे स्वस्य(यजमानस्य) शरीरे

उत्पन्नोत्पत्स्यमानाऽखिलारिष्ट निवृत्तये श्री मृत्युंजयप्रसादादीर्घायुष्यसततारोग्यावाप्त्ये

महामृत्युंजय जप महं करिष्ये||

ऋष्यादिन्यासः

वामदेवकहोलवशिष्ठाॠषयःमूर्धि्नः ||

पंक्तिर्गायत्री अनुष्टुप्-छंदासि वक्त्रे||

सदाशिवमहामृत्युंजय रूद्र देवतायैनमः हृदि|   

ह्रीं शक्तये नमो लिंङ्गे |

श्रीं बीजाय नमः पादयोः |

इति ऋष्यादिन्यासः ||

ॐ हौं ॐ जूँ सः भूर्भुवः स्वः त्र्यंबकं यजामहे सुगंधिंपुष्टिवर्धनं

उर्वारुकमिवबंध्नान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ भूर्भुवः स्वःॐ जूँसः हौं ॐ ||

अस्य श्रीमहामृत्युंजय मन्त्रस्य वामदेवकहोलवशिष्ठाॠषयःपंक्तिः

गायात्र्युषि्णगनुश्तुपछंदासि सदाशिवमहामृत्युंजयरूद्रदेवता ह्रीं शक्तिः

श्रीबीजं महामृत्युंजय प्रीतये ममाभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः |

ॐ हौं ॐ जूँ सः भूर्भुवः स्वः त्र्यंबकं ॐ नमो भगवते रुद्राय शूलपाणये स्वाहा हृदयाय नमः ||

ॐ हौं ॐ जूँ सः भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ नमोभगवतेरुद्राय अमृतमूर्तये मां जीवयशिरसि स्वाहा ||

ॐ हौं ॐ जूँ सः भूर्भुवः स्वः सुगंधिंपुष्टिवर्धनं ॐ नमोभगवतेरुद्राय चन्द्रशिरसे

जटिने स्वाहा शिखायै वौषट् | 

ॐ हौं ॐ जूँ सः भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिवबंध्नात् |

ॐ नमोभगवतेरुद्राय त्रिपुरान्तकाय ह्रां ह्रीं ह्रौं कवचाय हुम् |

ॐ हौं ॐ जूँ सः भूर्भुवः स्वः मृत्योर्मुक्षीय ॐ नमोभगवतेरुद्राय त्रिलोचनाय ॠग्यजुः

साम मन्त्राय नेत्रत्राय  वौषट् || 


ॐ हौं ॐ जूँ सः भूर्भुवः स्वः मामृतात् ॐ नमो भगवते रुद्राय-

ॐ अग्नित्रयाय उज्जवलज्वालाय मां रक्ष-रक्ष अघोराय फट् | 


इति षडङ्गन्यासः |

त्र्यम्बकं शिरसि |

यजामहे भ्रुवोः|

सुगंधिं नेत्रयोः |

पुष्टिवर्धनं मुखे|

उर्वारुकं गंण्डयोः |

इव हृदये|

बन्धनात् जठरे |

मृत्योर्लिंगे|

मुक्षीय उर्वो|

मा जान्वो|

अमृतात् पादयोः |

इति पदन्यासः||

मूलेन व्यापकं कृत्वा ध्यानं कुर्यात् |

||अथ ध्यानं||

हस्ताम्भोजयुगास्थकुम्भयुगलादुद्धत्य तोयंशिरः सिञ्चन्तं करयोर्युगे

न दधतं स्वांकेसकुम्भौकरौ |

अक्षस्त्र्ग्मृहस्तमंबुजगतं मूर्द्धस्यचंद्रस्त्रवत्पीयूषोत्रतनुं भजेशगिरिजं

मृत्युञ्जयं त्र्यम्बकम् |

चंद्रोद्भासितमूर्ध्जंसुरपतिं पीयूषपात्रं वहद्धस्ताब्जेन दधत्

सुदिव्यममलंहारस्यास्य पंकेरूहम्|

सूर्येंद्वग्निविलोचनं करतले पाशाक्षसूत्रांकुशाम्भोजं विभ्रतमक्षयं पशुपतिं मृत्युंजयं संस्मरे ||

 इति ध्यात्वा |

मानसोपचारैः संपूज्य||

ॐ लं पृथिव्यात्मकंगन्धं समर्पयामि ||

ॐ हं आकाशात्मकं  पुष्पं समर्पयामि ||

ॐ यं वायवात्म्कंधूपं समर्पयामि ||

ॐ रं तैजसात्मकं दीपं समर्पयामि ||

मन्त्रं जपेत्|

ॐ हौं ॐ जूँ सः भूर्भुवः स्वः

त्र्यम्बकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनं उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्

भूर्भुवः स्वरों जूँसः हौं ॐ ||

ततो जपानंतरं देवदक्षिणकरे जपं समर्पयेत् ||

गुह्यातिगुह्यगोप्ता त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् |

सिद्धिर्भवतु मे देव त्वत्प्रसादान्महेश्वर ||

मृत्युञ्जयःमहारूद्र त्राहि मां शरणागतम् ||

जन्ममृत्युजरारोग पीडितं कर्मबंधनैः||

अर्पणं-

अनेन महामृत्युंजयजपाख्येंन कर्मणा श्रीमहा मत्युन्जयः प्रीयतां न मम|

इति विज्ञाप्यदेवेशं जपेंन्मंत्रंतुत्र्यम्बकं ||

जप निवेदनम् –

जपसांगतासिद्धयर्थंयथाकामनाद्रव्येण तद्धशाशदुग्धाज्य संसिक्तापामार्गसमिदि्भर्होमः

तद्धशांशतर्पणम् तद्धशांशमार्जनं तद्धशांशब्राह्मणभोजनंकारयेत् ||

इति||अथ होमार्थं शताक्षरा गायत्री मन्त्रः ||

ॐ तत्सवितुर्वरेंण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात् |

ॐ जातवेदसेसु नवाम सोममारातीयतोदिनहातिवेदः |

स नः पर्षदतिदुर्गाणिविश्वानावेवसिन्धुर्दुरितात्याग्निः||

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनं उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् स्वाहा ||

|| इति अरिष्टशान्त्यर्थं महामृत्युंजयजप विधिः समाप्तं || 

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Gorochan | गोरोचन क्या होता है? https://prabhupuja.com/gorochan/ https://prabhupuja.com/gorochan/#respond Tue, 24 Jan 2023 04:16:13 +0000 https://prabhupuja.com/?p=139 Gorochan आप भी पा सकते हैं गोरोचन के चमत्कारिक लाभ, क्या आप जानते हैं क्या होता है गोरोचन ?

Gorochan kya hota hai? गोरोचन क्या होता है? What is Gorochan?

gorochan kaisa hota hai? गोरोचन गाय या बैल के पित्त में बनने वाला एक प्रकार का पदार्थ है जो मोम की तरह होता है सूखने पर पत्थर के समान कड़ा हो जाता है। यह पीले रंग का सुगंधित पदार्थ होता है जिसमें थोड़ी सी मात्रा में लालिमा होती है। किसी गाय या बैल की मृत्यु के बाद चर्म कार्य करने वाले गाय या बैल के पित्त में से गोरोचन निकाल लेते है यह जरुरी नहीं की सभी गायों या बैल में यह पाया जाए, आज के समय मे जब गाय या बैल कचरा खाते है तब गोरोचन का शुद्ध मिलना भी बड़ी बात है।

शुद्ध गोरोचन की विशेषता उसका रंग व बनावट होती है, असली गोरोचन का रंग गेहुआ व बनावट झिल्लीदार होती है जिसमे परतदार लखीरे बनी होती है खरीदते समय इस बात पर जरूर ध्यान दे।

माना जाता है कि सबसे उत्तम कोटि का गोरोचन हाथी के मस्तिष्क से प्राप्त होता है और दूसरा उत्तम गोरोचन गाय के पेट से प्राप्त होता है।

चीन और जापान में गोरोचन का उपयोग लंबे समय से तेज बुखार, ऐंठन और स्ट्रोक सहित विभिन्न बीमारियों के इलाज के लिए किया जाता रहा है। चीन और जापान में इसे निउ-हुआंग के नाम से जाना जाता है। हिन्दू सनातन धर्म की आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति आज लुप्त प्राय हो चुकी है जबकी बौद्ध इसको सहेजकर रखते है जो आज भी उनके पास सुरक्षित है।

गोरोचन क्या काम आता है? क्या होते हैं इसके लाभ?

गोरोचन विषनाशक के रूप में कार्य करता है।

गोरोचन बुखार और संक्रामक रोगों को कम करता है।

गोरोचन व्यक्ति के मस्तिष्क को शक्ति प्रदान कर स्पष्ट रूप से सोचने और बुद्धिमानी से कार्य करने में सक्षम बनाता है।

गोरोचन के उपयोग से वशीकरण का प्रभाव होता है, इसका तिलक लगाने से मस्तक पर तेज आता है, बच्चों की बुद्धि तीर्व होती है, उनका मन स्थिर होता है, पढाई मे ध्यान लगता है, सीखने की क्षमता बढ़ती है।

गोरोचन युक्त अष्टगंध चन्दन का उपयोग रोज करना चाहिये।

गोरोचन इस्तेमाल करने की विधि

शुक्ल पक्ष मे जन्मे स्त्री या पुरुष को सफ़ेद गाय से प्राप्त गोरोचन का इस्तेमाल करना चाहिये, इसी तरह कृष्ण पक्ष मे जन्मे स्त्री या पुरुष को अन्य किसी भी रंग की गाय से प्राप्त गोरोचन का इस्तेमाल करना चाहिये ।

शुद्ध गोरोचन को चांदी की डिबिया मे सहेजकर रखना चाहिये, प्रातःकाल उठकर गोरोचन का दर्शन करना चाहिये।
आपकी अगर कोई बड़ी मीटिंग है तो गंगा जल मे गोरोचन को घिस कर उसका तिलक मस्तक पर लगाने से मीटिंग मे आप अपना सौ प्रतिशत प्रयास कर पायेगे।

किसी विद्वान सिद्ध पंडित या गुरु द्वारा सिद्ध किया हुआ अभिमंत्रित गोरोचन ही काम मे लेना चाहिये।

गोरोचन का चित्र भी आपको साफ़ साफ यहाँ दिखाई दे रहा है, इसकी झिल्लीदार संरचना और परतनुमा बनावट आपको चित्र में साफ़ दिखाई दे रही है, यही इसके असली होने की पहचान है।

FAQ


1 ग्राम गोरोचन की कीमत क्या है?

पूर्ण शुद्ध गोरोचन की कीमत 200 रूपए प्रति ग्राम से लेकर 2000 रूपए प्रति ग्राम तक हो सकती है।

असली गोरोचन कहाँ मिलेगा?
गोरोचन कौन सी दुकान पर मिलता है?

असली गोरोचन मिलने का स्थान आपके शहर में पुरानी पंसारी की दुकान हो सकती है, बड़ी गौशाला में भी गोरोचन मिल सकता है, चर्म कार्य करने वाले लोगो के पास भी असली गोरोचन मिल सकता है, किसी विद्वान सिद्ध गुरु के आशीर्वाद स्वरुप भी गोरोचन प्राप्त किया जा सकता है।


पूजा में गोरोचन का उपयोग कैसे करें?

पूजा में गोरोचन का उपयोग तिलक रूप में किया जाता है, गोरोचन को गंगाजल में घीस कर भगवान को तिलक लगाना चाहिये।


गोरोचन कैसे प्राप्त होता है?

गोरोचन गाय या बैल के पित्त में बनने वाला एक प्रकार का पदार्थ है जो मोम की तरह होता है सूखने पर पत्थर के समान कड़ा हो जाता है। यह पीले रंग का सुगंधित पदार्थ होता है जिसमें थोड़ी सी मात्रा में लालिमा होती है।

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Janeu Sanskar Yajnopavita Rules | जनेऊ यज्ञोपवीत धारण करने के नियम वैदिक विधि, उपनयन संस्कार https://prabhupuja.com/janeu-sanskar-yajnopavita-rules/ https://prabhupuja.com/janeu-sanskar-yajnopavita-rules/#respond Thu, 05 Jan 2023 08:37:42 +0000 https://prabhupuja.com/?p=63 janeu mantra क्यों पहनते हैं जनेऊ और क्या है इसके लाभ, यज्ञोपवीत धारण करने के नियम Janeu Sanskar Yajnopavita Rules, कौन-कौन यगोपवीत धारण कर सकता है? जनेऊ सभी हिन्दू पहन सकते है जी हां हर एक हिन्दू जनेऊ धारण कर सकता है। ब्रह्मचारी(पुरुष जिसका विवाह नहीं हुआ हो) उसको 1(3 धागो से बनी हुई) यज्ञोपवीत धारण करनी चाहिये और साथ ही ग्रहस्त(पुरुष जिसका विवाह हो गया है) उनको 2(6 धागो से बनी हुई) यज्ञोपवीत धारण करनी चाहिये।

उपनयन संस्कार क्या है? क्यों पहनते हैं जनेऊ

जब हिन्दू बालक अपनी देखभाल खुद करना शुरू कर देता है तो वैदिक काल से ही गुरुकुल में शिक्षा लेने की प्रथा थी जो आज स्कूल के रूप में होते है जहा बालक ज्ञान प्राप्त करते थे। हिन्दू धर्म के अनुसार गुरु बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता है ठीक उसी तरह श्रेष्ट ज्ञान प्राप्ति बिना जनेऊ पहने नहीं हो सकती है, जनेऊ से बालक नियम पालना, स्वच्छ रहना, जागरूक रहना सीखता है, जनेऊ धारण करने से शरीर पवित्र और शुद्घ होता है।

उपनयन का अर्थ है पास या सन्निकट ले जाना। किसके पास? – ब्रह्म और ज्ञान के पास ले जाना अर्थात जनेऊ पहनने वाले को ज्ञान सीखने में निपुण बनाता है। जनेऊ में 5 गांठ लगाई जाती हैं जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष को दर्शाती है अर्थात जीवन का हर काम जनेऊ पहन कर ही पूरा होता है।

इसी कारण यज्ञोपवीत हिन्दू जीवन का अभिन्न अंग रहा है परन्तु आज के समय में जनेऊ को बोझ समझा जाता है और केवल विवाह संस्कार के समय अतिआवश्यक होने के कारण सिर्फ रस्म निर्वाह के लिए उपनयन संस्कार होता है बहुत कम लोग है जो अब जनेऊ को जीवन परियन्त धारण करते है, इसी के चलते आज अधर्मपूर्ण आचरण बढ़ता जा रहा है व्यक्ति स्वछंत रहना चाहता है बिना नियम अनुसार जिस कारण वह अपना श्रेष्ट ना तो स्वयं को दे पाता है ना ही देश व समाज का भला कर पाता है, यज्ञोपवीत को ज्यादा से ज्यादा अपनाने से व्यभिचार, अल्पज्ञान, असभ्य समाज आदि अनेक समस्याओ का समाधान स्वतः ही हो जायेगा ऐसा मेरा मानना है।

यज्ञोपवीत/ जनेऊ धारण या उपनयन संस्कार की उम्र

ब्राह्मण के पुत्र को 8 वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत धारण करनी चाहिये।
क्षत्रिय के पुत्र को 11 वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत धारण करनी चाहिये।
वैश्य व अन्य सभी के पुत्र को 13 वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत धारण करनी चाहिये।

यज्ञोपवीत / जनेऊ धारण करने की विधि

श्रावणी कर्म में पूजन किया हुआ न हो तो नूतन यज्ञोपवीत को जल से शुद्ध करके दस बार गायत्री मन्त्र से अभिमंत्रित करके नीचे लिखे मंत्रो से सूत्रों में देवताओ का आव्हाहन करे

प्रथमतन्तौ ॐ कारमावाहयामि । द्वितीयतन्तौ ॐ अग्निमावाहयामि । तृतीयतन्तौ ॐ सर्पानावाहयामि । चतुर्थतन्तौ ॐ सोममावाहयामि । पञ्चमतन्तौ ॐ पितृनावाहयामि । पप्ठतन्तौ ॐ प्रजापतिमावाहयामि । सप्तमतन्तौ ॐ अनिलमावाहयामि । अष्टमतन्तौ ॐ सूर्यमावाहयामि नवमतन्तौ ॐ विश्वान् देवानामावाहयामि ।

अन्थि मध्ये ग्रंथीं

ॐ ब्रह्मणे नमः ॐ ब्रह्माणमावाहयामि । ॐ विष्णवे | नमः ॐ विष्णुमावाहयामि । ॐ रुद्राय नमः ॐ रुद्रमावाहयामि ।। 

Janeu Pahnane ka Mantra यज्ञोपवीत / जनेऊ धारण करने का मंत्र (जनेऊ पहनने का मंत्र)

यज्ञोपवीतधारणे विनियोगः

ॐ यज्ञोपवीतमिति मन्त्रस्य परमेष्ठी ऋपिः लिंगोक्ता देवता त्रिष्टुप छन्दः यज्ञोपवीतधारणे विनियोगः । 

मन्त्र

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।

आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।-पार. गृ.सू. 2.2.11।

पुराने व जीर्ण यज्ञोपवीत/ जनेऊ का त्याग मंत्र

एतावदिनपर्यन्तं ब्रह्म त्वं धारितं मया ।

जीर्णत्वात्त्वत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथासुखम् ।। 

Janeu Pahnane kay Niyam यज्ञोपवीत/ जनेऊ धारण करने के नियम

।।यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत।।

अर्थात : अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके ही इसे दाएं कान पर से उतारें।

पृष्ठदेशे च नाभ्यां च धृतं यद् विन्दते कटिम् ।
तद्धार्यमुपवीतं स्यान्नातिलम्बं न चोच्छ्रितम् ॥

अर्थात : स्तन से ऊपर आये याने बहुत छोटा नहीं हो तथा नाभि से नीचे जावे यज्ञोपवीत इतना बड़ा नहीं पहनना चाहिये। 
स्तन से ऊपर, कमर से नीचे जनेऊ को नहीं होना चाहिये। 

यज्ञोपवीत/ जनेऊ कब कब बदलनी चाहिये।

  • हर चार महीनो में यज्ञोपवीत/ जनेऊ को बदल लेना चाहिये।
  • किसी मृत्यु वाले घर में 12 दिन में जाने पर भी यज्ञोपवीत/ जनेऊ को बदल लेना चाहिये।
  • किसी की मृत्यु पर शमशान में जाने पर भी यज्ञोपवीत/ जनेऊ को बदल लेना चाहिये।
  • प्रत्येक चंद्र ग्रहण या सूर्य ग्रहण के पश्यात भी यज्ञोपवीत/ जनेऊ को बदल लेना चाहिये।
  • मल-मूत्र त्याग करते समय अगर जनेऊ को दाहिने कान पर नहीं चढ़ा पाये तो ऐसी यज्ञोपवीत/ जनेऊ को बदल लेना चाहिये।
  • यज्ञोपवीत गलती से शरीर से अलग हो जाये तो भी यज्ञोपवीत/ जनेऊ को बदल लेना चाहिये।
  • घर में किसी बालिका या बालक का जन्म हुआ है तो भी यज्ञोपवीत/ जनेऊ को बदल लेना चाहिये।
  • जनेऊ कट-फट जाये या किसी भी कारण से खंडित हो जाए तो ऐसी यज्ञोपवीत/ जनेऊ को बदल लेना चाहिये।

FAQ

जनेऊ किस कंधे पर पहना जाता है? Janeu on which shoulder

बाये कंधे पर Left Sholder

उपनयन संस्कार कब किया जाता है?

ब्राह्मण के पुत्र को 8 वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत धारण करनी चाहिये।
क्षत्रिय के पुत्र को 11 वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत धारण करनी चाहिये।
वैश्य या अन्य सभी के पुत्र को 13 वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत धारण करनी चाहिये।

How many threads in janeu after marriage?

6 threads in janeu after marriage.

सहवास के समय जनेऊ धारण करने के क्या नियम हैं?

जनेऊ को बाये कंधे पर से किसी भी स्तिथि में उतारा नहीं जाता है, जनेऊ सहवास के समय भी नहीं उतारी जाती है।

जनेऊ को लड़की कब पहनती है? क्या महिलाएं भी धारण कर सकती जनेऊ?

जनेऊ केवल पुरुष ही नहीं बल्कि महिलाएं भी धारण कर सकती हैं। लेकिन उनको भी इसके नियमों का पालन करना जरूरी हैं। महिलाओं को हर बार मासिक धर्म के बाद जनेऊ को बदल देना चाहिए ।

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What is Tula Daan? | तुला दान क्या है? https://prabhupuja.com/what-is-tula-daan/ https://prabhupuja.com/what-is-tula-daan/#respond Thu, 05 Jan 2023 05:20:02 +0000 https://prabhupuja.com/?p=53 What is Tula Daan?, तुला दान क्या है? क्यों कलयुग/कलिकाल में तुलादान के समान कोई दान नहीं है ? सभी प्रकार के कष्टों का एक समाधान है, तुलादान!!!!!

सोलह महादानों में पहला महादान तुला दान या तुलापुरुष दान है । तुलादान अत्यन्त पौराणिक काल से प्रचलन में है । सबसे पहले भगवान श्रीकृष्ण ने तुलादान किया था, उसके बाद राजा अम्बरीष, परशुरामजी, भक्त प्रह्लाद आदि ने इसे किया । कलिकाल में यह तुलादान प्राय: काफी प्रचलन में है ।

हिन्दू संस्कृति में दान और त्याग मुख्य हैं जबकि आसुरी संस्कृति में भोग और संचय की प्रधानता रहती है ।

सोलह महादान कौन-कौन से हैं ?

पुराणों व स्मृतियों में सोलह महादान बताए गए हैं—

  1. तुलादान या तुलापुरुष दान,
  2. हिरण्यगर्भ दान,
  3. ब्रह्माण्ड दान,
  4. कल्पवृक्ष दान,
  5. गोसहस्त्र दान,
  6. हिरण्यकामधेनु दान,
  7. हिरण्याश्व दान,
  8. हिरण्याश्वरथ दान,
  9. हेमहस्तिरथ दान,
  10. पंचलांगलक दान,
  11. धरा दान,
  12. विश्वचक्र दान,
  13. कल्पलता दान,
  14. सप्तसागर दान,
  15. रत्नधेनु दान तथा,
  16. महाभूतघट दान

ये दान सामान्य दान नहीं है, अपितु सर्वश्रेष्ठ दान हैं । ये सभी दान सामान्य आर्थिक स्थिति वालों के लिए संभव नहीं है । इनमें से एक भी दान यदि किसी के द्वारा सम्पन्न हो जाए तो उसका जीवन ही सफल हो जाता है । जो निष्काम भाव से इन सोलह महादानों को करता है, उसे पुन: इस संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता है, वह मुक्त हो जाता है ।

तुलादान या तुलापुरुष दान!!!!!!!!!!

सोलह महादानों में पहला महादान तुलादान या तुलापुरुष दान है । तुलादान अत्यन्त पौराणिक काल से प्रचलन में है । सबसे पहले भगवान श्रीकृष्ण ने तुलादान किया था, उसके बाद राजा अम्बरीष, परशुरामजी, भक्त प्रह्लाद आदि ने इसे किया । कलिकाल में यह तुलादान प्राय: काफी प्रचलन में है ।

इसमें तुला की एक ओर तुला दान करने वाला तथा दूसरी ओर दाता के भार के बराबर की वस्तु तौल कर ब्राह्मण को दान में दी जाती है । तुला दान में इन्द्रादि आठ लोकपालों का विशेष पूजन होता है । तुलादान करने वाला अंजलि में पुष्प लेकर तुला की तीन परिक्रमा इन मन्त्रों का उच्चारण करके करता है—

नमस्ते सर्वभूतानां साक्षिभूते सनातनि ।
पितामहेन देवि त्वं निर्मिता परमेष्ठिना ।।
त्वया धृतं जगत्सर्वं सहस्थावरजंगमम् ।
सर्वभूतात्मभूतस्थे नमस्ते विश्वधारिणि ।।

‘हे तुले ! तुम पितामह ब्रह्माजी द्वारा निर्मित हुई हो । तुम्हारे एक पलड़े पर सभी सत्य हैं और दूसरे पर सौ असत्य हैं । धर्मात्मा और पापियों के बीच तुम्हारी स्थापना हुई है । मुझे तौलती हुई तुम इस संसार से मेरा उद्धार कर दो । तुलापुरुष नामधारी गोविन्द आपको मेरा बारम्बार नमस्कार है ।’

ऐसा कहकर दानदाता तुला के एक तरफ बैठ जाए और ब्राह्मणगण तुला के दूसरे पलड़े पर दान की जाने वाली वस्तु को तब तक रखते जाएं, जब तक कि तराजू का पलड़ा भूमि को स्पर्श न कर ले ।

तुलादान में ध्यान रखने योग्य बात!!!!!!!

इसके बाद तुला से उतरकर दानदाता को तौले गए दान की गयी वस्तु तुरन्त ब्राह्मणों को दे देनी चाहिए । देर तक घर में रखने से दानदाता को भय, व्याधि तथा शोक की प्राप्ति होती है । शीघ्र ही दान दे देने से मनुष्य को उत्तम फल की प्राप्ति होती है ।

किन वस्तुओं का होता है तुलादान ? (तुलादान सामग्री)

प्राचीन समय में मनुष्य के शरीर के भार के बराबर स्वर्ण तौला जाता था, किन्तु कलियुग का स्वर्ण अन्न है, इसलिए कलियुग में स्वर्ण के स्थान पर सप्त धान्य या अन्न से तौला जाता है।

रोगों की शान्ति के लिए भगवान मृत्युंजय को प्रसन्न करने के लिए लौहे से तुलादान किया जाता है।

विभिन्न कामनाओं की पूर्ति के लिए तुलादान की वस्तु

रत्न, चांदी, लोहा आदि धातु, घी, लवण (नमक), गुड़, चीनी,️ चंदन, कुमकुम, वस्त्र, सुगन्धित द्रव्य, कपूर, फल व विभिन्न अन्नों से तुलादान किया जाता है ।

सौभाग्य की इच्छा रखने वाली स्त्री को कृष्ण पक्ष की तृतीया को कुंकुम, लवण (नमक) और गुड़ का तुलादान करना चाहिए ।

तुलादान की महिमा!!!!!!!!!!!

तुलादान करने से मनुष्य ब्रह्महत्या, गोहत्या, पितृहत्या व झूठी गवाही जैसे अनेक पापों से मुक्त होकर परम पवित्र हो जाता है ।

आधि-व्याधि, ग्रह-पीड़ा व दरिद्रता के निवारण के लिए तुलादान बहुत श्रेष्ठ माना जाता है । इसको करने से मनुष्य को अपार मानसिक शान्ति प्राप्त होती है ।

यदि नि:स्वार्थभाव से भगवान की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए भगवदर्पण-बुद्धि से तुलादान किया जाए तो तुलापुरुष का दान करने वाले को विष्णुलोक की प्राप्ति होती है । अनेक कल्पों तक वहां रहकर जब पुण्यों के क्षय होने पर पुन: जन्म लेता है तो धर्मात्मा राजा बनता है ।

इतना ही नहीं, इस प्रसंग को पढ़ने-सुनने या तुलादान को देखने या स्मरण करने से भी मनुष्य को दिव्य लोक की प्राप्ति होती है ।

यदि किसी कामना से तुलादान किया जाए तो वह दाता की मनोकामना पूर्ति में सहायक होता है ।

तुलादान पूजन सामग्री

अक्षत, रोली(कुमकुम), मोली(लच्छा), अष्टगंध चन्दन, सिंदूर, कपूर, गुड़ या लडडू, सुपारी, लौंग, इलायची, पंच मेवा, रुई, धुप, अबीर, गुलाल, इत्र, श्री फल(नारियल), दशोषधी, राताधोला, यग्नोपवीत, शुद्ध गाय का घी, गेहू, पान, फूल, फूलों की माला, पांच फल, मावे का प्रसाद, दूब(दूर्वा), पंचपल्लव, तीर्थ जल, पाटा, कलश, पानी का लोठा, कुछ पैसे या रूपए ।

किस स्थान पर करें तुलादान ?

तीर्थस्थान में, मन्दिर, गौशाला, बगीचा, पवित्र नदी के तट पर, अपने घर पर, पवित्र तालाब के किनारे या किसी पवित्र वन में तुलादान करना श्रेष्ठ होता है।

भारत में द्वारकापुरी में द्वारकाधीश मन्दिर के पास एक तुलादान मन्दिर है । ऐसा माना जाता है कि सत्यभामाजी ने इसी स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण का तुलादान किया था । इस मन्दिर में सभी प्रकार के कष्टों के निवारण के लिए तुलादान किया जाता है ।

कामना-रहित यह दान-धर्म, परम श्रेय सोपान है ।

जो दान-धर्म में दृढ़ रहता, उनका सब दिन कल्याणकारी है।

FAQ

  1. What is Tula Daan?

    In this, on one side of the weighing balance, the donor weighs and on the other hand an object equal to the weight of the donor is weighed and donated to a Brahmin.

  2. What are the Sixteen Maha Daan?

    तुलादान या तुलापुरुष दान,
    हिरण्यगर्भ दान,
    ब्रह्माण्ड दान,
    कल्पवृक्ष दान,
    गोसहस्त्र दान,
    हिरण्यकामधेनु दान,
    हिरण्याश्व दान,
    हिरण्याश्वरथ दान,
    हेमहस्तिरथ दान,
    पंचलांगलक दान,
    धरा दान,
    विश्वचक्र दान,
    कल्पलता दान,
    सप्तसागर दान,
    रत्नधेनु दान तथा,
    महाभूतघट दान

  3. क्यों कलयुग/कलिकाल में तुलादान के समान कोई दान नहीं है ?

    विभिन्न कामनाओं की पूर्ति के लिए! रोगों की शान्ति के लिए, ग्रह-पीड़ा व दरिद्रता के निवारण के लिए कलयुग/कलिकाल में तुलादान के समान कोई दान नहीं है ।

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Ashtagandha Chandan Ingredients | अष्टगंध चन्दन सामग्री https://prabhupuja.com/ashtagandha-chandan-ingredients/ https://prabhupuja.com/ashtagandha-chandan-ingredients/#respond Thu, 29 Dec 2022 14:03:30 +0000 https://prabhupuja.com/?p=1 Ashtagandha Chandan Ingredients, अष्टगंध चंदन क्या होता है?, अष्टगंध बनाने की सामग्री की पूरी जानकारी हम यहां पर बता रहे हैं साथ ही अष्टगंध बनाने की विधि भी बहुत ही सरल है, अष्टगंध संस्कृत का शब्द है अष्ट का अर्थ है “आठ” और गंध का अर्थ है “सुगंध” अर्थात आठ पदार्थो की सुगंध । अष्टगंध तिलक के रूप में सदियों से सनातन धर्म का मुख्य भाग रहा है। आप स्वयं घर पर अष्टगंध चन्दन बना सकते है, असली अष्टगंध चन्दन का तिलक मन को जो शक्ति और सामर्थ्य देता है वो शब्दों में कहा नहीं जा सकता है, और रोज अगर आप अष्टगंध चन्दन मस्तक पर लगाते है तो आपके विचारो को शुद्धता और मन को शांति मिलती है।

आप मानसिक रूप से स्वस्थ विचारो वाले व्यक्ति बनते है। अष्टगंध चन्दन वैदिक काल से ही हिन्दू दिनचर्या का अभिन्न भाग रहा है।

Ashtagandha Chandan Ingredients अष्टगंध चन्दन सामग्री

अष्टगंध चन्दन निम्नलिखित आठ पदार्थो से मिलकर बनता है।

  1. चन्दन (सफ़ेद या लाल चन्दन ) (White or Red Chandana)
  2. अगर (Agar)
  3. कपूर (kapoor or Camphor)
  4. कचूर (Kachoor)
  5. कुमकुम (रोली ) (Kumkum)
  6. गोरोचन (Gorochan)
  7. जटामासी (Jatamasi)
  8. रक्तचंदन (Raktchandana)

ये आठ पदार्थ समान मात्रा मे मिलकर अष्टगंध चन्दन बनता है। इन सभी का पाउडर बनाकर समान मात्रा मे मिला ले। सभी पदार्थ पूर्ण शुद्ध हो इसका विशेष ध्यान रखे।

माता लक्ष्मी की पूजा मे अष्टगंध चन्दन अनिवार्य होता है।

विशेष :- कुमकुम मिला अष्टगंध चन्दन भगवान शिव के नहीं चढ़ता है, बाकी सभी देवी-देवताओं की पूजा में यह अष्टगंध चन्दन प्रयुक्त किया जाता है। शंकर भगवान की पूजा में शैव-अष्टगन्ध चन्दन प्र्योग में लाया जाता है ।

अष्टगंध का प्रयोग / उपयोग कैसे करें

अष्टगंध चंदन सभी भगवान की पूजा मे मुख्य रूप से उपस्थित रहा करता था, जो अब शुद्धता के अभाव में धीरे-धीरे पूजा से लुप्त प्राय हो चुका है, भगवान शंकर की पूजा मे शिव लिंग पर लेप के रूप में अष्टगंध चंदन का प्रयोग होता है। भगवान शंकर को यह अत्यंत प्रिय है, गणपति पूजन हो या माता लक्ष्मी की पूजा अष्टगंध चंदन तिलक के रूप में अनिवार्य होता है। पुरातन काल में और वर्तमान समय में कुछ विद्वान् मंत्र लेखन में भी अष्टगंध चंदन का प्रयोग करते हैं। इससे मंत्र सिद्धि की राह आसान हो जाती हैं। कृष्ण भगवान को भी अष्टगंध चन्दन का तिलक लगाया जाता है।

अष्टगंध चंदन तिलक के 5 चमत्कारिक लाभ या फायदे

  1. माता लक्ष्मी को अष्टगंध की सुगंध अत्यंत प्रिय है तो अगर उनको प्रसन्न करना हो तो अष्टगंध का उपयोग प्रतिदिन पूजा मे जरूर करे।
  2. अष्टगंध चन्दन के प्रभाव से ग्रहो के दुष्प्रभाव समाप्त हो जाते है।
  3. अष्टगंध चन्दन के इस्तेमाल से घर के समस्त वास्तुदोष समाप्त हो जाते है।
  4. अष्टगंध चन्दन मन से तनाव को दूर कर मानसिक शांति लाता है।
  5. कर्मकांड एवं यंत्र, तंत्र और मन्त्र लेखन में अष्टगंध का प्रयोग होता है।

अष्टगंध चन्दन के नाम पर बाजार मे कुछ भी मिलाकर बेचा जाता है जो बहुत गलत है। अष्टगंध चन्दन अगर बाजार मे बहुत सस्ता मिल रहा है जैसे 10 या 20 रुपए मात्र का तो यह निश्चित माने की वह असली अष्टगंध चन्दन नहीं है।

अष्टगंध चन्दन दो प्रकार का होता है

1. शैव अष्टगंध

जल काश्मीरकुष्ठश्च रक्तचन्दनचन्दनैः ॥
तगरागुरुकपूरैः शाम्भवं चाटगन्धकम् ॥ ४३४ ॥

[Hindi Translation]:- जल, केसर, कुष्ठ, रक्तचंदन, चन्दन, तगर, अगर, कपूर – ये आठ द्रव्यों को शैव-अष्टगन्ध जानना चाहिए।

2. वैष्णव अष्टगंध

ह्रीबेरश्चन्दनकुष्ठमगुरुः कुङ्कुम मुरा ॥
सिहकञ्च जटामांसी वैष्णवं तदुदीरितम् ॥४३२॥

[Hindi Translation]:- ह्रीवेर, चंदन, कुष्ठ, अगर, कुंकुम, मुर, सेव्यका, और जटामासी – यह आठ पदार्थों के मिश्रण को वैष्णव-अष्टगन्ध के रुप में जानना चाहिए ।

यह भी पढ़े

गौशाला में तुलादान

FAQ

अष्टगंध चन्दन क्या होता है?

अष्टगंध संस्कृत का शब्द है अष्ट का अर्थ है “आठ” और गंध का अर्थ है “सुगंध” अर्थात आठ पदार्थो की सुगंध । यह एक प्रकार का चन्दन है जो टिका करने और भगवान की पूजा करने मे काम आता है। ऊपर बताए आठ पदार्थ समान मात्रा मे मिलकर अष्टगंध चन्दन बनाते है।

अष्टगंध चन्दन कैसे बनाया जाता है ? What is Ashtagandha made of?

1. चन्दन (सफ़ेद या लाल चन्दन )
2. अगर
3. कपूर
4. कचूर
5. कुमकुम (रोली )
6. गोरोचन
7. जटामासी
8. रक्तचंदन
ये आठ पदार्थ समान मात्रा मे मिलकर अष्टगंध चन्दन बनता है।

अष्टगंध चन्दन के लाभ क्या-क्या है ?

माता लक्ष्मी को अष्टगंध की सुगंध अत्यंत प्रिय है तो अगर उनको प्रसन्न करना हो तो अष्टगंध का उपयोग प्रतिदिन पूजा मे जरूर करे|

अष्टगंध चन्दन कहां मिलता है?

पूर्ण शुद्ध अष्टगंध चन्दन मिलना आज के समय में असंभव ही लगता है । सबसे उत्तम यही होगा की आप स्वयं सभी आठ पदार्थो को खरीदकर मिलाकर खुद से ही अष्टगंध चन्दन बना ले, पदार्थो की शुद्धता फिर भी जाँची जा सकती है । किसी भी दुकानदार या कंपनी के कहने मात्र से पूर्ण शुद्ध अष्टगंध चन्दन मिलना संभव नहीं है । यही सच्चाई है ।

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